मंदी की चपेट में तेल तिलहन उद्योग , खाद्य तेलों पर आयात शुल्क लगाना हीं एकमात्र विकल्प ।

मंदी की चपेट में तेल तिलहन उद्योग , खाद्य तेलों पर आयात शुल्क लगाना हीं एकमात्र विकल्प ।

रोजाना टूटता तिलहन और तेल का बाज़ार तेल तिलहन उद्योग से जुड़े उद्यमी और व्यापारी के लिए एक विकट संकट खड़ा कर दिया है और वो है इस इंडस्ट्री के अस्तित्व के बचाने का क्योंकि जिस तरीक़े से पिछले साल से ही तेल और तिलहन बाजार में अस्थिरता का माहौल बना हुआ है अगर सरकार इसपर कोई ठोस कदम नहीं उठा पाती है तो इस उद्योग के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लग जायेगा क्योंकि विदेशी तेल तिलहन बाज़ार के आगे भारतीय तिलहन बाजार का बगैर सरकारी हस्तक्षेप का अपना अस्तित्व कायम रखना मुस्किल होगा क्योंकि सनफ्लावर सोया तेल पर आयात शुल्क पामोलिन की तुलना में काफी कम रहने से किसानों का मनोबल सोयाबीन सनफ्लावर सहित अन्य तिलहनों की बिजाई से हट जाएगा, इस स्थिति में आने वाले समय में भारतीय तेल तिलहन उद्योग खतरे में आ सकता है। बिजाई बढ़ाने के लिए सरकार को सोया तेल एवं सनफ्लावर तेल जैसे खाद्य तेलों पर आयात शुल्क बढ़ाना ही एकमात्र उपाय हैं। गौरतलब है कि खाद्य तेलों की पैकिंग पर घरेलू कंपनियों द्वारा एमआरपी बहुत अधिक रखा जा रहा है, जिससे आम उपभोक्ताओं को खाद्य तेलों में मंदे का लाभ नहीं मिल पा रहा है। कंपनियों द्वारा 110 / 115 रुपए प्रति लीटर सोयाबीन व सूरजमुखी तेलों की पैकिंग पर एमआरपी 150 रुपए प्रति लीटर में बेचा जा रहा है, जबकि सरकार ने 6 रुपए प्रति लीटर की उपभोक्ताओं को और छूट दी है। यानी पिछले 5- 6 महीने थोक में उक्त खाद्य तेलों को 30 से 40 रुपए महंगा बड़ी कंपनियां बेच रही हैं। दूसरी ओर कमजोर वर्ग के लोग पामोलिन सस्ता होने से उपयोग करते थे, इस पर सरकार ने 13.75 प्रतिशत आयात शुल्क लगा दिया है, जबकि सोयाबीन व सनफ्लावर तेल पर 5.5 प्रतिशत आयात शुल्क है। विदेशी कंपनियां चाहती हैं कि भारत में तिलहन उत्पादन कम हो जाए, जिससे तेलों की कमी हो जाने पर विदेशी कंपनियां ऊंचे भाव पर भारत को निर्यात करेंगी। जैसा कि एक वर्ष पहले विदेशों से खाद्य तेल के भाव 2500 डॉलर प्रति टन में व्यापार हुआ था, जो अब 1020 डॉलर रह गया है। विदेशी कंपनियां कुछ एसोसिएशनों को रिमोट कंट्रोल से चला रही हैं तथा सरकार को सही जानकारी मुहैया नहीं कराती हैं। किसानों को तिलहन ओके ऊंचे भाव नहीं मिलने पर आगे भारतीय तिलहन उत्पादन घटेंगा, तो इसका परिणाम गंभीर हो सकता है। डेरी संचालकों का कहना है कि 2 वर्ष पहले तक 18-20 प्रतिशत तक वार्षिक लिक्विड दूध का उत्पादन बढ़ता था, जो अब बिनौला खल सरसों खल, चोकर की कमी होने तथा पशु आहार महंगा हो जाने से दूध का उत्पादन घट गया है। सरकार आपदा के लिए गेहूं का स्टॉक तो करती है, लेकिन गाय भैंस बेजुबान पशुओं के लिए क्या इंतजाम हैं। सोयाबीन ऑयल प्रोसेसिंग एसो. ने 7000 वर्ग किलोमीटर का सर्वे
कराया, जिससे पता चला है कि 50 प्रतिशत सोयाबीन सीड पिराई के बगैर बच गया है। कारोबारी सोयाबीन में 7000 रुपए की धारणा में थे, लेकिन खाद्य तेलों पर आयात शुल्क कम रहने से यह घटकर 5100/5200 रुपए प्रति क्विंटल रह गए हैं। हमारा देश 1992-93 में तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भरता के करीब था, जिससे बहुमूल्य विदेशी मुद्रा बाहर नहीं जाता था, यह कमाई होती थी। इसका कारण यह है कि मूंगफली – सनफ्लावर का पैदावार आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश के किसान उत्पादन करते थे, जो बाद में धीरे-धीरे विदेशी तेल सस्ते होने के कारण तिलहन को छोड़कर अन्य फसलों जैसे धान, मक्की, बाजरा की तरफ जाना पड़ा है। केंद्रीय मंत्री श्री नितिन गडकरी ने कहा कि हमारे पास चावल रखने के लिए गोदामों में जगह नहीं है, हम सब्सिडी देकर चावल निर्यात कर रहे हैं, जिसकी जगह तिलहन उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। माननीय प्रधानमंत्री जी ने शिक्षा की तुलना तिलहन उत्पादन को बढ़ाने से की, जो शिक्षा अमूल्य है। उनको तिलहन उत्पादन की काफी चिंता है। विगत 2 वर्षों में खाद्य तेलों में तेजी से किसानों को सरसों, सोयाबीन के अच्छे दाम मिले थे, जिससे उत्पादन में लगातार वृद्धि हुई है। जिन बड़ी कंपनियों के अर्जेंटीना और ब्राजील में प्लांट हैं, उनको भारत में तिलहन उत्पादन बढ़ने से काफी दिक्कत आई है, जो बाद में तिलहन किसानों का हौसला तोड़ने के लिए शोर मचा कर सरकार पर दबाव बनाकर आयात शुल्क मुक्त करवा लिया। वर्तमान में सरकार ने इस पर रोक लगा दी है। पिछले वर्ष किसानों को 6500/7000 रुपए प्रति क्विंटल मूल्य मिले थे, आज उनको सरसों के भाव 10 प्रतिशत समर्थन मूल्य से नीचे मिल रहा है। सोयाबीन एवं सनफ्लावर काफी सस्ते हो गए हैं। आज सरकार को इस नीतियों के कारण 6400 रुपए समर्थन मूल्य करने के बाद भी सनफ्लावर की पैदावार सिमटकर 10 प्रतिशत रह गई हैं। देश में प्रति व्यक्ति डेढ़ लीटर तेल की खपत है जबकि दूध की 20 लीटर मासिक है। सस्ते आयातित तेल के कारण दूध के दाम 5-6 महीने में लगातार बढ़ते गए हैं, जिससे प्रति महीना 100 रुपए का बोझ पड़ा है। क्या यह मुद्रास्फीति में नहीं बढ़ती । अगर तिलहन के ज्यादा दाम मिलेंगे तो देश की अर्थव्यवस्था में काम आएगा रोजगार मिलेगी एवं विदेशी मुद्रा बचेगी।

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